भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
फूटी थी निस्सार नदी / प्रेम भारद्वाज
Kavita Kosh से
फूटी थी निस्सार नदी
पतली सी इक धार नदी
छोड- अपना घर बार नदी
मानो भूत सवार नदी
कहती क्या मछली इसको
जिसकी थी सरकार नदी
उफने भी, पुल के नीचे
बहती आखिरकार नदी
बाँधोंगे तब निकलेगी
बिजली बन घर-द्वार नदी
हिम बादल बारिश कोहरा
सबका असली सार नदी
तोड़ेगी तटबंधों को
तब खोदेगी घार नदी
होना बादल फिर सागर से
प्रेम करे बेकार नदी