भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फूट गई पिचकारी / प्रभुदयाल श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

म्मू जी ने पिचकारी में,
रंग लबालब ठूंसा।
दौड़े गम्मू के पीछे यूं,
मार रहे हों घूंसा।

हाथ चलाया जोरों से तो,
फूट गई पिचकारी।
रम्मू के मुंह पर ही आई,
ठेल रंगों की सारी।

गम्मू पर तो गिरी बूंद न,
रम्मू रंगे रंगाएँ।
हाथ झटकते पैर पटकते,
घर को वापस आएँ।