भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
फूट रही है कोंपलें / अरविन्द भारती
Kavita Kosh से
मुर्दा जिस्मों में
हो रही हरकतें
घायल चेहरे
गा रहे गीत
नदियों ने कर दी
बग़ावत
समुंद्र में मची है
खलबली
अभी अभी अंधेरों ने
देखा है दिया
रात की आँखों में
खौफ की रेखा है
एक झोंका ताज़ा हवा का
फैला है फिजाओं में
बंजर जमीन पे
फूट रही है कोंपलें।