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फूलदान भी धूल सना है / नारायणलाल परमार
Kavita Kosh से
एक कलेण्डर टँगा पुराना
है घर की दीवाल पर
सूख रहे फूलों के पौधे
टूटी है खपरैल भी
बुझने-बुझने को है ढिबरी
ख़त्म हो रहा तेल भी
घड़ी टिकटिका रही अहर्निश
जैसे चिड़िया डाल पर
टँगे अलगनी पर हैं कपड़े
मैले धूसर आज भी
सूने घर में चूहे दौड़े
आती उन्हें न लाज भी
फूलदान भी धूल सना है
रोता अपने हाल पर
जीवन और मरण में उलझा
आज तलक इतिहास है
कहने-सुनने को यह सब कुछ
और नहीं कुछ खास है
एक अदद है रहा आदमी
जीता अपने हाल पर ।