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फूलों की घाटी में बजता / शशिकान्त गीते

फूलों की घाटी में बजता
कान- फोड़ सन्नाटा।

बीच- बीच में यहाँ- वहाँ से
उभर डूबती चीख़ें
डस लेती लिप्सा की नागिन
जो पराग- पल दीखें
आदमक़द आकाश आँख का
होता जाता नाटा ।

नदियों- झीलों- झरनों में जा
डूब मरी मुस्कानें
शोक- धुनों में बदल रही हैं
उत्सव- धर्मीं तानें
सन्तूरी सम्मोहन टूटा
चुभता बनकर काँटा ।