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फूलों की शोखी़ से तेरी याद जवाँ होती है/ विनय प्रजापति 'नज़र'

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रचनाकाल : २००५/२०११

फूलों की शोखी़ से तेरी याद जवाँ होती है
मेरी हर नज़्म में तेरी बात निहाँ<ref>छुपी</ref> होती है

सावन की पहली बारिश की सौंधी-सौंधी खु़शबू
मुझे तेरे बदन की खु़शबू का गु़माँ<ref>भ्रम</ref> होती है

लम्स<ref>स्पर्श</ref> जो सर्दियों की धूप से मिलता है मुझको
उसमें तुम्हारी उंगलियों की ज़ुबाँ<ref>भाषा</ref> होती है

वो चंचल आँखें इतनी सुन्दर और निर्मल हैं
जैसे हर रोज़ सुबह-सुबह पाक अज़ाँ होती है

उसके गेसू<ref>केश</ref> बिखरते हैं मिजाज़ से उड़ते हैं
जो उन्हें देख-भर ले फ़िदा उसकी जाँ होती है

मैं चाँद को देखता हूँ जब कभी ज़रा ग़ौर से
मुझको उसमें भी शक़्ल आपकी अयाँ<ref>प्रदर्शित</ref> होती है

उसके होंठ तो ओस में भीगे हुए गुलाब हैं
रात-दिन जिनके बोसे को तिश्नगी रवाँ<ref>प्यास बढ़ना</ref> होती है

‘नज़र’ की मोहब्बत को कोई भी हद नहीं है
जब दिल मांगते हैं वह हाथों में जाँ होती है

शब्दार्थ
<references/>