भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फूलों ने अधर न खोले / हरि ठाकुर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शंख
मचाते रहे शोर पर
इन फूलों ने अधर न खोले।

होते रहे
समर्पित प्रति दिन
हँसते-हँसते
खिलकर, झरकर।
बसते रहे सुरभि ले कर वे
साँसों के पथ, ह्रदय उतर कर।

कोई ऐसा
फूल नहीं जो
नयनों में कुछ रंग न घोले।

कर्कश ध्वनि
के सिवा शंख के
अंतर से
कुछ कभी न निकला
रंग, रूप, रस, गंध हीन वह
जीवन भर ही रहा खोखला।

आत्मप्रशंसा
लीन शंख ये
रहे जन्म से ही बड़-बोले।