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फूलों से बदन उन के काँटे हैं ज़बानो में / 'साग़र' आज़मी
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फूलों से बदन उन के काँटे हैं ज़बानो में
शीशे के हैं दरवाज़े पत्थर की दुकानों में
कश्मीर की वादी में बे-पर्दा जो निकले हो
क्या आग लगाओगे बर्फीली चट्टानों में
बस एक ही ठोकर से गिर जाएँगी दीवारें
आहिस्ता ज़रा चलिए शीशे के मकानों में
अल्लाह रे मजबूरी बिकने के लिए अब भी
सामान-ए-तबस्सुम है अश्कों की दुकानों में
आने हो है फिर शायद तूफ़ान नया कोई
सहमे हुए बैठे हैं लोग अपने मकानों में
शोहरत की फ़जाओं में इतना न उड़ो ‘सागर’
परवाज़ न खो जाए इन ऊँची उड़ानों में