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फूल, पंछी और आदमी / बोधिसत्व
Kavita Kosh से
इतना चल चुका हूँ इस पृथ्वी पर
फिर भी कितने कम फूलों को
जानता हूँ उनके नाम से
कितने कम को पहचानता हूँ उनकी महक से ।
कितने कम पंछियों को पहचानता हूँ उनकी आवाज़ से
उनके पंखों से निकली धुन से ।
सोते हुए गुज़रता हूँ पुलों के ऊपर से
नीचे से बह रही थी जो नदी पता नहीं
क्या था उसका नाम
बरसों छहाँता रहा जिस पेड़ के नीचे
नहीं पता चला उसका नाम-गोत्र अब तक ।
कौन आदमी था वह
जिसने जगाया और कहा--
उठिए, आपका स्टेशन आ गया है
हड़बड़ी में पूछ नहीं पाया उसका नाम
देख नहीं पाया उसका चेहरा भी
ठीक से ।