फूल अनगिन प्यार के / सुरेन्द्र स्निग्ध
मौत की दुर्गम
अँधेरी घाटियों में
तुमने खिलाए फूल
अनगिन प्यार के
मौत थी एकदम खड़ी
बाँहें पसारे सर्द तेरे सामने
और मैं भी था निरन्तर गर्म
बाँहों को पसारे मौत के आगे
तुम्हारे सामने
तुम देखती थीं सिर्फ मेरे प्यार को
दर्द में डूबी तुम्हारी आँखों की पुतली
चमक उठती थीं बन ब्रह्माण्ड की लपटें
इन्हीं लपटों से डर कर रह गई मृत्यु
हमारे प्यार की ऊष्मा से डरकर रह गई मृत्यु
अचानक देख लो ख़ुशबू से कैसे तर हुई माटी
अचानक फूल से देखो है कैसे भर गई घाटी
इन अनगिनत फूलों की
कोमल पंखुरी से
है खिला यह धूप का सागर
कि इनकी ख़ुशबू से
भर गई है मौत की गागर
अनगिनत ये फूल,
तुमने ही उगाए हैं
मरण के बाग में ख़ुशबू
भी तुमने ही लुटाई है
ये फूल हैं मनुहार के
मौत की दुर्गम अन्धेरी घाटियों में
फूल अनगिन प्यार के।