भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फूल इक उम्मीद का है जो के मुरझाया नहीं / सिया सचदेव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फूल इक उम्मीद का है जो के मुरझाया नहीं
दूर तक अब रेत हैं सेहरा की और साया नहीं

यूं तो दुनिया की सभी हैं नेमते हासिल मुझे
फिर भी जाने क्या कमी जो दिल कहीं लगता नहीं

मुफ़लिसी अब तो रहेगी उम्र भर मेरे क़रीब
सर के ऊपर अब मेरे माँ बाप का साया नहीं

आप क्यों देते रहे झूठे दिलासे ही मुझे
आप को जब लौट कर वापस ही आना था नहीं

अब न बाकि है कोई जीने की मुझ में आरज़ू
बेसबब युहीं जिए जाना मुझे भाता नहीं

हाँ मेरी तन्हाइयों के साथ मैं तनहा रहू
दूर तक अपना कोई मुझको नज़र आता नहीं

चोट खाए हो गये कितने ज़माने फिर भी क्यों
टीस उट्ठे है अभी तक ज़ख्म भी ताज़ा नहीं

इक ज़रा सी बात पर ही चीखने लगते हैं आप
आपने तन्हाइयों का रक्स ही देखा नहीं

दायरों की क़ैद में दिल तो कभी रहता नहीं
इस हकीक़त को सिया क्यों कर कोई समझा नहीं