भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फूल कभी न लड़ते / प्रभुदयाल श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फूल सुबह से देखो कैसे
ताजे ताजे खिलते
हमसे तुमसे सबसे कैसे
हँसते हँसते मिलते।

तितली आती भौंरे आते
फूल कभी न डरते
पीते कितना भी मधु पराग
इंकार कभी न करते।

देते सुगंध महका आंगन
मन के दुख को वे हरते
देते सबको ढेरों खुशियाँ
अभिमान कभी न करते।

बड़े बड़े मंदिर समाधि
और देवों के सिर चढ़ते
धर्म भले लड़ते आपस में
फूल कभी न लड़ते।

इनके पद चिन्हों पर यदि
इंसान आज के चलते
स्नेह प्रेम बढ़ता आपस में
न सम्बंध बिगड़ते।