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फूल की खुशबू / वशिष्ठ अनूप
Kavita Kosh से
फूल की खुशबू हवा की ताजगी खतरे में है
लोक गीतों की खनकती ताजगी खतरे में है
सभ्यता इस दौर की है नर्वसन होने लगी
आदमीयत गुम रही है आदमी खतरे में है
पानी पानी को तरसती सोच में डूबी नदी
हो रही हर रोज दूषित जिंदगी खतरे में है
पत्थरों के जंगलों में पल रहे विषधर तमाम
प्यार में डूबी हुई निश्छल हँसी खतरे में है
लोग अब करने लगे हैं यूँ अँधेरे को नमन
चाँदनी सहमी हुई है रोशनी ख़तरे में है
दिन ब दिन रंगीन होता जा रहा संसार यूँ
इन दिनों सदियों सराही सादगी खतरे में है