फूल खिले न खिले / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय
फूल खिले न खिले
आज बसन्त है।
पथरीले फ़र्शबन्द फुटपाथ पर
पत्थर में अपने पाँव रोपकर
उग आनेवाला जारुल का पौधा
अपने नन्हें-नन्हें पत्तों के साथ
हँस रहा है बुक्का फाड़कर, उठाकर।
फूल खिले न खिले
आज बसन्त है।
रोशनी की आँखों में काला चश्मा डाल
और फिर उसे निकाल-
मनुष्य को मृत्यु की गोद में सुलाकर
और फिर उठाकर
जो दिन राहों से गुज़र चुके हैं
वे तो अब न लौटें।
देह पर पीली साँझ पोते
एक-दो पैसे पाकर
जो हरबोला बालभगत
कोयल-सी कूक भरा करता था
-उसे भी हाँकते हुए ले गये वे दिन।
लाल स्याही से लिखी
पीली चिट्ठी की तरह
सारा आकाश सिर पर उठाये
इसी गली की वह काली-कलूटी अधेड़-सी लड़की
रेलिंग से अपना सीना टिकाए,
पता नहीं, क्या कुछ उल्टा-सीधा सोच रही थी-
और ठीक इसी घड़ी
अचानक हैरानी में डालकर
देह पर चढ़ बैठी
यह मुँहजली तितली
जा, कहीं डूब मर मुई!
और इसके बाद धड़ाम से बन्द हो गया दरवाज़ा।
अन्धकार में मुँह पर हाथ रखकर
रस्सी-जैसा बटा वह पौधा
तब भी, मुस्करा रहा था।