भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फूल बनकर, गंध बनकर / अश्विनी कुमार आलोक

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मर न जाऊं मैं तेरी संवेदना में मीत मेरे
और जीना चाहती हूँ फूल बनकर, गंध बनकर

कितने कांटों में फंसा है
नेह का संसार सारा
छूके खुश होना मना है
यह कठिन व्यापार सारा
देखकर कर संकल्प कर लो, आ मिलो मकरंद बनकर

हमको वंचित रख रहे जो
आंसुओं का भार देकर
मिट परेंगे हम उन्हीं को
यह अमित उपहार देकर
लय मरेगी यह न होगा, हम रहेंगे छंद बनकर

शतदलों का प्यार पाना
भाग्य में सबके नहीं है
गंधमादन पर अकेला
है वही, कोई नहीं है
नींद में गहरी जो सोये, टिक सके अनुबंध बनकर