फूल बनकर बिछ सको यदि तुम नहीं / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
फूल बन कर बिछ सको यदि तुम नहीं
शूल बन कर भी न फैलो राह में
चल रहा चलने मुझे दो।
आफतें यों ही हजारों रात-दिन
सीस पर गिरतीं हमारे टूट कर
किन्तु मैं उनको निरन्तर झेलता
गीत गा-गाकर स्वरों में भूल कर।
मैं नहीं बाहर गया मन की व्यथा
विश्व में कहने किसी से आज तक
औ’ न जाऊँगा कभी, मैं जानता,
कौन सुनता है किसी की बात तक।
टाल देता है हँसी में अश्रु की
बात औरों की सदा संसार यह
मैं इसी से मुसकराकर ही स्वयं,
पोंछ लेता आँसुओं की धार यह।
मौन होकर बैठ कर एकान्त में,
छेड़ वीणा के सुरीले तार को
यत्न करता भूलने का मैं सदा
विश्व के विष से भरे व्यवहार को।
सिर्फ इतना चाहता हूँ
तार बन झनकार दो यदि तुम नहीं
स्वर विषम बन भी न आओ राग में
गा रहा गाने मुझे दो॥1॥
चाहता हूँ मैं कभी भी यह नहीं,
स्वर्ग का ऐश्वर्य मेरे पास हो
और यह भी कामना मेरी नहीं
स्वर्ग का शृंगार मेरा दास हो।
चेतना का जागरण जब से हुआ
बात तब से है यही उर में जमी
देवता आता नहीं है स्वर्ग से
देवता बनता धरा का आदमी।
किन्तु बनना आदमी जितना कठिन,
देवता बनना कहीं उससे सरल
धारणा मेरी अरे निश्चित यही
आदमी बनना कठिन पहले पहल।
मानता हूँ जन्म को औ’ मृत्यु को
जिन्दगी की धार के दो कूल मैं
बह रहा हूँ खोजने नर-रत्न को
इस धरा के सिन्धु-तट की धूल में।
सिर्फ इतना चहता हूँ
धार बन कर आ सको यदि तुम नहीं
बांध बन कर भी न आओ बीच में
बह रहा बहने मुझे दो॥2॥
प्रात होते ही शुरू चलना किया
चल रहा तब से धरा की राह पर
प्रात से रवि बन शुरू चढ़ना किया
चढ़ रहा तब से गगन की राह पर
और जीवन की दुपहरी भी हुई
पर नहीं जाना तनिक विश्राम भी
शून्य में जलता अकेला ही रहा,
किन्तु कहने का लिया कब नाम भी!
प्यार से अंगार-पथ अपना लिया
फिर अरे शृंगार का संसार क्या?
विश्व में आधार कुछ पाया नहीं
मैं स्वयं आधार अपना पा गया।
एक यह निज शक्ति औ’ विश्वास ले
जिन्दगी की साँझ में मैं ढल रहा
दिवस में रवि बन, निशा में दीप बन,
मैं गहन तम की शिला पर जल रहा।
सिर्फ इतना चाहता हूँ
स्नेह बन उर भर सको यदि तुम नहीं
वायु बन कर भी बहो मत रात में
जल रहा जलने मुझे दो॥3॥