फूल बन खिलो कि हार बन सको / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
फूल बन खिलो कि हार बन सको।
शूल बन के आ पड़ा जो राह में
दूर फेंक बढ़ गया उसे पथिक;
और यदि चुभा वह पैर में कहीं
खून खुद बहा के बढ़ गया पथिक।
शूल धूल में मिला, मिला न कुछ
खींच सीस पर कल रेख ली;
विश्व ने घृणा भरी निगाह से
एक बार देख आँख फेर ली।
कह रहा इसीलिये कि राह के
फूल बन खिलो कि प्यार बन सको॥1॥
कह रहे हो सभ्यता की ओर ही
बढ़ रहा है हर कदम मनुष्य का;
किन्तु देखता हूँ मैं मनुष्य ही
भक्ष्य आज बन रहा मनुष्य का।
क्या यही प्रगति? यही है सभ्यता?
प्रश्न कर रही है यह दिशा-दिशा;
कौन सूर्य की कहे, न चाँद का
है पता अभी; घिरी अमा निशा।
कह रहा इसीलिये कि दीप बन
तुम जलो कि अन्धकार हर सको॥2॥
स्वर्ग है कहीं गगन की आड़ में
बात मानता हूँ यह न मैं कभी;
तुम भले इसे गले उतार लो
बाद ठानता हूँ यह न मैं कभी
स्वर्ग है धरा यही, औ’ देवता
है पला इसी धरा की धूल में,
धूल का हरेक कण पुकार कर
कह रहा पड़ा मनुष्य भूल में।
भूल शूल-सी नयह चुभे, अगर
भूल का सुधार शीघ्र कर सको॥3॥