फूल बेचने वाली युवती / निलय उपाध्याय
लोकल के डब्बे मे
हाथ में गुलाब के फूलों का गुच्छा लिए
बीस साल की एक युवती आई
मुस्कराई और कहा
फूल ले लो बाबूजी
नहीं चाहिए
कह कर मैं देखने लगा खिड़की के बाहर
उस ओर जिधर भागी जा रही थी लोकल
वह इलाका आने वाला था जिधर चर्चा थी
वाल-मार्ट खुलने की
फूल ले लो बाबूजी
आपकी तरह सुन्दर है, सुगन्ध भी है इसमे
चाहे तो देख लीजिए आप सूँघकर, रोज़ पच्चीस का
बेचती हूँ आप बीस ही देना
मेरा चेहरे पर आए भाव देख ख़ुद ही
पन्द्रह पर आ गई
एक बार कहा ना
मुझे नही चाहिए ये गुलाब
पूरी ताक़त से इनकार कर मै देखने लगा
उस १८००० वर्ग फ़ीट जमीन के टुकड़े को
जिसे सरकार ने आरक्षित किया था
वाल-मार्ट के नाम
जिस पर बहस चली थी विधानसभा मे
मचा था घमासान
मगर वही हुआ जिसे होना था
पता चला विपक्ष पहले ही बिक चुका था
मेरी निगाहें भीतर मुड़ीं
युवती वहीं खड़ी थी
मेरे सामने वाले यात्री से कह रही थी
आपकी बीबी को बहुत अच्छा लगेगा
प्लीज, ले लीजिए बाबूजी ये गुलाब
और जब ना कह दिया उसने भी
तो रूँआसा मुँह बना कहने लगी गिड़गिड़ा कर
सुबह से कुछ नही खाया बाबूजी,
इसे लेकर दे दीजिए बस एक
वडा-पाव का दाम
मुझे दया आई और लेने का मन बना
पैसा निकालने के लिए मैने जेब में लगाया
ज्योंहि अपना हाथ कि पकड लिया
बगल में बैठे एक ने, कहने लगा
किस चक्कर में पडे हो, यार !
ये आदत है उसकी, रोज़ आती है बारह बजे के बाद
लोकल मे और ऐसे बेचती है सामान
जैसे भीख माँग रही हो ।