भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फूल / अपर्णा अनेकवर्णा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पद्म लिखूँ...
अध्यात्म-सा खींचता है..
कुमुदनी लिखूँ..
स्कूल के रास्ते.. हर भोर..
जगेसर पासवान के पोखरे में सफ़ेद कालीन-सी बिछी होती
देसी गुलाब लिखूँ..
छुपी मधुमक्खी का डंक.. दादी ने रातरानी की पत्ती का लेप लगा..
मन्तर पढ़ कर झाड़ दिया..
केवड़ा लिखूँ..
ख़ुशबू से नग़मा के घर का हर दस्तरख़ान गमकता..
गेंदा लिखूँ..
सफ़ेद फल को विधिवत रोप कर.. नानी के घर गई..
माह बाद शरमाते नारंगी फूलों को पाया.. सृष्टा का भाव जग आया था
कदम्ब लिखूँ...
खट्टे फल पेड़ पर हमेशा मीठे से लगते थे..
मधुमालती लिखूँ..
ख़ुशबूदार गहने पहने
ख़ुद को नन्ही विश्वसुन्दरी समझती..
रजनीगन्धा लिखूँ.. एक गीत संग एक यामिनी की स्मृतियों में गुँथा..
बेला लिखूँ..
आज भी थका घर लौटता पति, महानगरीय ट्रैफ़िक सिग्नल से ख़रीदता है..
पत्नी उस ख़ुशबू में कविताएँ लिखा-पढ़ा करती है...
गुलनार का लाल लिखूँ.. नीम का सफ़ेद.. कचनार का गुलाबी.. कनेर का पीला..
आम का मदालस.. निम्बू का चटक.. रातरानी का तीखा... चमेली का जागा हुआ...
कौन सा फूल लिखूँ....
कि मैं फूलों पर लिखते रहना चाहती हूँ..