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फूल / हरीश करमचंदाणी
Kavita Kosh से
सवेरे उठा तो फूल खिला था
मैं उससे हौले से बतियाया
उसकी बातों से और
भीनी भीनी गंध से भी
झलकता था साफ-साफ
कि वह बहुत खुश हैं
हालाँकि गमले में पानी डालना
दो दिन से भूल गया था मैं
और एक कांटा ठीक सिर के नीचे
उसके भाले सा तना था
हाँ ,वह फूल
इतना खुश और निश्चिंत
लग रहा था
भला कोई कैसे सोच सकता था
शाम होते होते वह मुरझा जायेगा
और कल तक अपनी झाडी से
जायेगा झड़
महक उसकी तो बसी रहेगी
सदा मन में