भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
फेर पछबा बसातक स्वर वैह / मार्कण्डेय प्रवासी
Kavita Kosh से
फेर पछबा बसातक स्वर वैह !
फेर दुबरयलै नदी-
मेघक वियोगें
फेर उड़इछ धूलि-धुक्कड़ वैह !!
फेर नीमक गाछ पर-
मजरलै चैती,
फेर तापक शापसँ सिहरलै धरती,
जीव मात्रक माथ पर-
मड़रा रहल छै-
फेर क्रोधें लाल दिनकर वैह !
फेर सागर धरि
पहुँचाबामे बहुत बाधा,
फेर आधे लहरि एवं चन्द्रमो आधा,
फेर थाकल-पियासल-
राहीक भटकब वैह !
क्षितिजपर अगणित चिड़ै
बौआ रहल अछि,
जतहि देखि ततहि सभ टौआ रहल अछि,
फेर दूर दिगन्त धरि-
पसरलै अन्हड़ वैह !