भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फैन्टेसी / पद्मजा शर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


मैंने कहा-मैं फैन्टेसी बुनता हूँ
उसने कहा-चलो, मैं खाना बनाती हूँ
मैंनें कहा-हँस तो दो
उसने कहा-कब से हँस ही तो रहे हैं
और वह हँस दी
मैंने कहा-कुछ बोलो
वह चुप रही
मैंने कहा-मैं मौन की भाषा समझता हूँ
उसने कहा- मैं ख़ामोशियों में बोलती हूँ
मैंने कहा-पर जब तुम बोलती हो
मेरे कानों में चाँदी की घंटियाँ-सी बजती हैं
उसने कहा-बजने दो
मैंने कहा-तुमने मुझे काम पर लगा दिया
उसने कहा-लगे रहो
मैंने कहा-कभी लिखा तक नहीं
और अब कर रहा हूँ प्रेम,
उसने कहा-करते रहो
मैंने कहा-तुम कहो तो ना करूँ ?
उसने कहा-खिलते फूल को कोई कहे
कि खिलना बंद कर दो
तो क्या नहीं खिलेगा ?
मैंने कहा-पर लोग ?
उसने कहा-उनकी छोड़ो, तुम्हें कैसा लग रहा है ?
मैंने कहा-आसमान में उड़ रहा हूँ
उसने कहा-उड़ो
मैंने कहा-सागर की गहराई में उतर रहा हूँ
उसने कहा-उतरो
मैंने कहा-डूब रहा हूँ
और वह मेरे साथ डूब गई।