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फैलता उजाला हो / प्रदीप शुक्ल
Kavita Kosh से
मन के
अँधियारों में
फैलता उजाला हो
बुरी नज़र वालों का
मुँह फिर से काला हो
तम से
जम कर प्यारे
फिर दो - दो हाथ हों
और इस लड़ाई में
अपने सब साथ हों
ईर्ष्या के कमरे पर
नेह का ताला हो
कार्टून
के बदले
केवल कार्टून हो
सड़कों पर नहीं
केवल रगों में खून हो
गर्दन पर चाकू नहीं,
फूलों की माला हो
छिटकी सी
धूप हो,
नीला आकाश हो
सांस में सांस हो,
जीने की आस हो
मौला यह सबको दे
लाली हो, लाला हो
खील हो
बताशे हों
लक्ष्मी - गणेश हों
पुरखों की आशीषें
हम पर अशेष हों
डेहरी हो, आँगन हो,
दीया हो, आला हो