भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
फैलाकर अपनी बाँह / प्रेमशंकर शुक्ल
Kavita Kosh से
हँसी ही फैलाऊँगा
फूल के गोत्र का हूँ
पानी के कुल का हूँ
उतरूँगा जड़ की ही तरफ़
हाँ, बड़ी झील !
पानी के कुल का हूँ
इसीलिए
जहाँ पानी देखता हूँ
फैलाकर अपनी बाँह
ढरक जाता हूँ
उधर ही !