भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फैलाकर अपनी बाँह / प्रेमशंकर शुक्ल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हँसी ही फैलाऊँगा
फूल के गोत्र का हूँ

पानी के कुल का हूँ
उतरूँगा जड़ की ही तरफ़

हाँ, बड़ी झील !

पानी के कुल का हूँ
इसीलिए
जहाँ पानी देखता हूँ
फैलाकर अपनी बाँह
ढरक जाता हूँ
उधर ही !