फ्लेशबैक / लीलाधर मंडलोई
धुंधलके की धूसर प्लास्टिक सी चादर पूर्व में तनती हुई
जो देखने में आता रहा उससे जुदा
फैल रही लहर देह पर भीगती
आदिम जल अनुभव से एकदम भिन्न
सुदूर पश्चिम से फेंका हुआ प्रकाश बिंब
नर्मदा इस दूर दृश्य में ईंगुर में उछाहती
पास कहीं ऑंखों में सहसा उभरतीं
मंदिर की पुरानी घंटियॉं सेंदूर में लत-पत
जिसके बेतरतीब नाद घुलते
कहीं दूर गायी जाती संझाती की पवित्रता में
उस पार चिताओं की लपटों के आगे गुजरती दिखतीं
मजूरों के मर्दाना रानों की स्वेद दीप्ति
पार्श्व में गूंजता नदी का ध्वनि संसार
रत स्वागत में उनके जो लौट रहे
हाड़-तोड़ मेहनत के साथ
बीच में दीखती रोशन एक स्पेस नजदीक होती
प्रगट होती जिसमें समय की मार खाई नाव
जिस पर लहरों के घात-प्रतिघात पारदर्शी
सुन पड़ते चप्पुओं के तेज छपाक
मानो मछुआरा घर लौटने के फ्लेशबैक में
बच्चों की तरफ लौटता कि देखता स्वप्न
चूल्हे के सामने आग में तपता घरवाली का अप्रतिम मुख
स्मृति में यह सब जो जारी है ढेर-सी जगह घेरता
नदी घाट के चित्र मात्र नहीं
मैं जो प्रत्यक्ष हूं किन्तु एक हिस्सा
लौट पड़ता हूं कि खींचता कोई
सम्मुख उस जर्जर दीवार के
पिता जहां तस्वीर से बाहर निकल कहते
इसी में सोये पूर्वज प्रशांत तल में
एक लोरी जो मृत्यु के बाद गाती है नदी
और हॉं! तुम जिन्हें छोड़ आए घाट पर
वे लहरों से नहीं
पूर्वजों से बतिया रहे हैं