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बँटने लगे धूल के परचे / विनोद निगम

फिर बज उठे हवा के नूपुर
फूलों के, भौरों के चर्चे
खुले आम, आँगन-गलियारों
बँटने लगे धूल के पर्चे !

जाने क्या, कह दिया दरद ने
रह-रह लगे, बाँस वन बजने
पीले पड़े फ़सल के चेहरे
वृक्ष धरा पर लगे उतरने

पुरवा, लगी तोड़ने तन को
धारहीन पछुआ के बरछे !

बैर भँजाने हमसे, तुमसे
मन हारेगा फिर मौसम से
निपटे नहीं हिसाब पुराने
तन, रस, रूप, अधर, संयम से

फूलों से बच भी जाएँ तो
गँधों के तेवर हैं तिरछे !