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बँधा हुआ कुत्ता / नरेश अग्रवाल
Kavita Kosh से
वह सामने फेंकी हुई रोटियों को
बँधे हुए गले के सहारे ही
निगलता था पेट तक,
अगर वह होता आजाद
खुद ही बटोर रहा होता
अपना खाना घूम-घूमकर
खेलता हुआ यार-दोस्तों के साथ
यहाँ थोड़ से अच्छे स्वाद के लिए
फँसा हुआ था गुलाम बनकर
और उसकी आजादी सिमटकर रह गयी थी
एक गज दूरी भर तक ।