बँधुआ सूरज को छुड़ाते हुए / मनोहर अभय
न राहत, न खैरात,
खाली-खुले हाथ
माँगते हैं उस पसीने की कीमत
जो तुम्हारे वैभव की मीनारें बनाने में खर्च हुई
भाखरा या नर्मदा की ऊँचाई उठाने में खप गई.
रंतिदेव!
तुम अपना उपवास तोड़ दो
तुम्हारे फलाहार की इन्हें दरकार नहीं।
ये खाली-खुले हाथ
सारे का सारा
सरकारी गोदाम निगल कर
विक्रमादित्य की मुद्रा में बैठे
बाहुबली की गर्दन दबोचना चाहते हैं।
विष्णु शर्मा चाणक्य!
तैयार करो कोई दासी पुत्र
नन्दवंश के समूल नाश के लिए.
नही तो
देखते देखते
जन गण मन का भाग्य विधाता
मतदान मशीनों में घुस कर
वंश-दर-वंश
अमरबेल की तरह दिशांतरों को जकड़ता जाएगा।
ये खाली-खुले हाथ
लिखना चाहते हैं रोमांचक आख्यान
खेतिहर मजदूरों पर
जिन्हें पी जाती है
रुपये, डालर, रूबल, या यूआन की साजिशें
लिखना चाहते हैं
घर-घर जूठे बर्तन मलती
बूढ़ी काकी का इतिहास
दंगाइयों के शिकार
लोहा छीलते पसीने से तर–ब-तर
मेहनतकश लोगों की आख्यायिका।
लिखना चाहते हैं कविता
जो आदमी की भूख-प्यास को आवाज दे सके
यानी कर सके बिम्बित
-अन्दर तक धँसे
खाली पेट की ऐंठन
-फुटपाथ पर अधलेटे
अपाहिजों के होठों की बुदबुदाहट
-कचरे के ढेर पर पड़े
लावारिस बच्चे का करुण रोदन
-सन्नाटे में बिगुल-सा फूँकती
सियाचिन की बर्फीली आंधिओं को झेलते
सेनानी की शहादत।
कविता जो बीहड़ अँधेरे को फूँक कर
खींच लाए उजाला
जिसे कुल जमा दस लोगों ने
अपने लाकरों में बंद कर रखा है।
सच मानो दोस्त!
ये खाली-खुले हाथ
जोड़ना चाहते हैं
—चौड़ी-चकली सड़कों से
सकरी गलियाँ
आदमी से आदमी
नदिओं से नदी, नहर, गाँव की पोखर
—ठहरा हुआ पानी इन्हें बर्दास्त नहीं।
इन खाली-खुले हाथों को
थाम लो भगीरथ!
थमा दो इन्हें फावड़े, बरछे और कुदाल
कि चट्टानों में दबी भागीरथी खींच लाएँ
बँधुआ सूरज को छुड़ाते हुए।