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बंगाली बाबा (1) / पुष्पेन्द्र फाल्गुन
Kavita Kosh से
कपाल के मूल में धंसी आँखों से
झांकता उनका जीवन दर्शन
इस बार भी
उनके पोपले मुंह में
होकर रह गया गोल-गोल, फुस्स-फुस्स
आकाश की धूप को
अपनी छितरी छतरी पर टिकाये
और होंठ के कोर से फिसलती
लार की धार को
गंदले अंगरखे के हवाले करते उन्होंने
नाक से स्वर साध मुझसे पूछा
'बोलो हमी है बंगाली बाबा'
उन्हें
साइकिल की कैरिअर पर बिठा मैंने
पैडलों के सहारे
धकेली थी
उनके घर की तरफ
एक नदी
अंग्रेजों के जमाने का एक पुल
और राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक सात
रास्ते भर
बीड़ी के सुन्न धुएं में मिला
वह सुनाते रहे मुझे
टुकड़ों-टुकड़ों में बाउल
रेल की नौकरी छोड़ने की कहानी
और बाबूजी से दोस्ती के किस्से-कोताह