बंजर का आर्तनाद / अहिल्या मिश्र
हवाओं की सनसनाहट
ने चिथड़ों को भी
उड़ा कर साथ कर लिया
और सर्द ठिठुरन
जीने को अकेले उसे
हीं छोड़ दिया।
पहले ही क्या कम थे एहसास?
बादलों के
सफेद रेशे में भी
इतना साहस नहीं कि
वह झुक कर
बंजर भूमि को
चूमें और उसकी बेबस
कोख को आबाद करे।
वह भी तो हमेशा
पवन-रथ पर सवार
तेज रफ़्तार से दौड़ता
चुपचाप चला जाता है।
इसे सूने...
सूनेपन के भय से भागकर।
काश!
कि कोई एक बार
गरजते समंदर को हीं
क्षण भर को पुकार पाता
और उसके दावे को हीं
सही होने में सहायक होता
और बंजर का यह आर्त्तनाद
मिटा पाता।
धरती की कोख में
एक दूब ही पनपा कर
गहरे बसे मन के
बाँझपन का एकाकी भाव
समाप्त कर पाता।
क्या ऐसा कोई
एहसास पालने वाला मन
आसानी से
पा सकेंगे
या... या... या...
आर्त्तनादी पुकार
मचा रहेगा हरदम।