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बंजारे बंजारों में / उदयप्रताप सिंह
Kavita Kosh से
ख़ुशबू नहीं प्यार की महकी जिनके सोच-विचारों में ।
नागफनी की चुभन मिली उनके दैनिक व्यवहारों में ।
तू पतझर के पीले पत्तों पर पग धरते डरता है
लोग सफलता खोज चुके हैं लाशों के अंबारों में ।
महलों के रहने वाले कुछ दूरी रखकर मिलते हैं
पल-भर में घुल-मिल जाते हैं बंजारे बंजारों में ।
औरत ही माँ, बहन, आत्मजा, पत्नी और प्रेमिका है
बदली नज़रों से पड़ता है, कितना फ़र्क नज़ारों में ।
अगर उजाला दे न सका तू ‘उदय’ अंधेरी बस्ती को
क्या होगा यदि लिख भी गया कल नाम तेरा फ़नकारों में ।