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बंजारे / स्वप्निल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
बंजारे अपने कन्धों पर अपना
घर लिए चलते थे
मैं अपनी यातना के साथ
चलता था
जो भी जिसके साथ था
वह उसी के साथ चलता था
सबके अपने अपने कन्धे
बोझ और उसे ढोने के तौर
तरीके थे
बहुत कम लोग अपना रास्ता
तय कर पाते थे
कुछ बीच में थककर
बैठ जाते थे
लेकिन मैं अन्त तक
चलता रहा
मैं जितना आगे चलता था
उतना पीछे छूट जाता था
बंजारे जब दुखी होते थे
तो गीत गाते थे
और मैं अपनी कविताएँ
पढ़ता था
कुछ बंजारे कवि थे
मैं उनके बीच बंजारा था