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बंटवारा / राजीव रंजन
Kavita Kosh से
था चालाक वह, आजादी की उसने कीमत वसूली।
प्यार से सींचे चमन में, आज न जाने किसकी नजर लगी।
अभी-अभी थी कली खिली, कि गुलशन में ही आग लगी।
जमीन पर नहीं, दिलों पर खून की लकीरें खिंची।
भाई-भाई की गर्दन पर ही थी तलवारें यहाँ भींची।
चँद मिनटों की खुशियों पर लाल-लाल पानी फिरा।
अभी उगे सूरज को जज्बातों के बादल ने घेरा।
झेलम, सिन्धु, सतलज का पानी लाल हुआ।
इंसानियत यहाँ भिखारी और गिद्ध माला-माल हुआ।
खून-पसीने से जो सींचा था, वह माली दर्द से बेहाल हुआ।
इस आग को जो बुझाए, उस सफेद खून की तलाश थी।
दर्द से सफेद हुए माली के खून ने ही फिर बलिदान दिया।