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बंदिशों में घुटती नारी / प्रवीण कुमार अंशुमान

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क्या मैं लड़की हूँ
इतना ही पर्याप्त है?
मुझे बंदिशों में रखने के लिए
मेरे साथ अन्याय कर
स्वतंत्र घूमने के लिए,

मेरा चीरहरण हो या कि हो अग्नि परीक्षा
इच्छा हो मेरी या हो पूर्ण अनिच्छा
क्या बस लड़की होना ही पर्याप्त है?
क्या तुम्हारी ही हुकूमत सर्वत्र व्याप्त है?
मैं इजाज़त माँगू तुझसे जीने के लिए
परिणय भी हो तेरी इच्छा के लिए,

बच्चे भी हो तेरी ही आकांक्षा
करूँ सदा तेरे आदेश की प्रतीक्षा,
इतना बंधन तो मेरे मासिक धर्म में भी नहीं
जितना रच डाला है तेरी धर्म की किताबों ने,
ऐसे ही नहीं सोच लेती हूँ गर्भ में

मत कर पैदा मुझे स्त्री के रूप में,
पैदा करने की क्षमता तो देख, मुझमें ईश्वर प्रदत्त है
क्या इसी की भरपाई में किया तूने सर्वस्व मेरा ज़ब्त है?
मन मेरा भी होता है उन्मुक्त होकर
उड़ जाऊँ खुले आकाश में

पर कितने रडार तूने बिछा रखे हैं
जो देखते रहते हैं मुझे हर ओर से
कहीं घूर-घूर कर खुली निगाहों से
तो कभी मूक होकर बन्द ज़ुबानों से
क्या लड़की होना ही पर्याप्त है?

कि मुझे जीवनभर बस सुनना पड़ेगा
तुम्हारी नीति की बातें, जीत की बातें
और कभी-कभी गंदी राजनीति की बातें,
हे पुरुष! ये कैसी दुनियाँ तूमने बना डाली

भगवान को भी अपनी ही सूरत में गढ़ डाली,
कर रहे हो पृथ्वी पर तुम कितनी मनमानी
गोला, बारूद, बम, है बस तेरी यही कहानी,
इतिहास के पन्नों में रौंदा था तुमने मुझको
यह अंकित है सदा के लिए

पढ़कर उन्हें कोई कभी भी हो जाए स्तब्ध,
और सिहर जाए सदा के लिए,
पर तुम कभी समझ ही न पाए
कि एक लड़की थी – तुम्हारी बहन,

या थी वो तुम्हारी माँ, मौसी, चाची या फिर कोई और,
पर मन के अदृश्य गलियारे में
तूने रखा इन सारे भावों को अंधियारे में,
देखा उसे सिर्फ इस बात पर

कि स्त्री! तुम हो सिर्फ भोग के लिए
हमारी इच्छानुसार उपयोग के लिए;
पर हे पुरुष! तेरा उद्धार कभी न होगा
मुक्ति का द्वार तेरा कभी न खुलेगा,

तुझे तो देख
वापस गर्भ में आना पड़ेगा
स्त्री को माँ समझ
फिर से बेटा बन जाना पड़ेगा,
तभी तेरी मुक्ति है,
अंतिम यही युक्ति है
अभी भी वक्त है,
संभल जा तू

वरना सर्वस्व मिट जाएगा,
बदल जा तू;
देख जरा गौर से, हर स्त्री में एक माँ है
उसके बच्चे में छुपी रहती उसकी जां है,
लौटकर वापस आ जा

तू अपने बहिर्मुखी स्वभाव से,
अंतर्मुखता जब बन सकेगी तेरा मार्ग
सारी विसंगतियों के अभाव में।