भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बंदों को हमराज़, खुदाओं को नाराज़ बनाता हूँ / विनय कुमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बंदों को हमराज़, खुदाओं को नाराज़ बनाता हूँ।
कल की ख़ातिर कल के रंगों से कुछ आज बनाता हूँ।

आँखों देखा हाल सुनाता हूँ कुहरा डूबे वन का
जो देखा, जाना, माना उससे कोलाज बनाता हूँ।

जिन हाथों ने ताज बनाया उनकी भी मुमताजें थीं
मैं उनकी मुस्कानों के फॉसिल से ताज बनाता हूँ।

बातूनी भौंरे की जिहवा, चक्षुश्रवा की आँख सुने
गूंगे गुड़ का स्वाद बताएँ वह आवाज़ बनाता हूँ।

दुष्मन को पहचाने चिड़िया, चूक नहीं होने पाए
इसीलिए मैं पेड़ों के पत्तों पर बाज़ बनाता हूँ।

डूब रहे आज़ाद परिंदों के जहाज़ कुछ ज़्यादा ही
नायपाल बतलाएँगे किसलिए जहाज़ बनाता हूँ।

रात गये तारों से बातें सुबह धूप में घुल जाना
एक नहीं दो नहीं करोड़ों को हमराज़ बनाता हूँ।

मिसरा दर मिसरा बाहर आने लगती है एक ग़ज़ल
जब सीधे सादे शब्दों तीरंदाज़ बनाता हूँ।