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बंद आँखों में कोई सपना नहीं रह पाता! / दिनेश जुगरान
Kavita Kosh से
आकाश है
पर मेरा नहीं
खिड़की पर
तारे नहीं सजते
सागर की लहरें
नहीं छूतीं मुझे
छत के आकार से
घटता बढ़ता चाँद
आँगन की सीलन में
धधकता है
और सूरज की किरणें
विभाजित प्यार की तरह
आँगन को चीरती चली जाती है
घर का दरवाज़ा
कभी मेरा नहीं रहा
मैं घर के अन्दर
न कभी बाहर रहा
आँगन मेरा जरूर
घटता रहा, बढ़ता रहा
बन्द आँखों में
कोई सपना नहीं रह पाता
कुछ है
जो मेरे अन्दर
सोते समय भी
जागता रहता है