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बंद कमरे में / स्वाति मेलकानी
Kavita Kosh से
दिमाग के
बंद कमरे में
काले, भूर,े हरे, लाल
नीले, पीले बादल बनकर
काँच, रूई, लोहे के टुकड़े
भर जाते हैं
वैसे ही
जैसे
भर जाती है हवा
और
फूलकर गुब्बारा
मटमैले दैत्य सा
फटने को तैयार
धकेलता दरवाजे को
अपने दोनों पंजों से
खरोचता
बीस नाखूनों से
और लातें मारता
जाने कितने पैरों से।
भूकंपों में झन झन करता
हिल जाता हैसारा कमरा
और मोहल्ला
जिसमें वह है
जिसको मैं
अपना घर कहकर
रोज रात को सो जाती हूँ।
आज बहुत हिचकी आती है
पलक झपकना
अब मुश्किल है।
अब तो शायद
खोल ही दूँगीदरवाजे को।
तेजाबी बारिश होगी
मेरे दिमाग में
भीग-भीग कर
जलना होगा।