बंद दहलीज़ पर ठिठकी परछाइयाँ / रूचि भल्ला
मैं क्यों करूँ फिक्र तुम्हारी कमीज़ के टूटते बटन की
मुझे नारियल की चटनी भी बनानी होती है
मैं नहीं कर सकती हूँ तुम्हारे खाने की फिक्र
तवे पर डाली मेरी रोटी जल जाती है
तुम्हारी दवा तुम्हारे मर्ज़ की जो फिक्र करूं
हाथ जला बैठूंगी आँच पर अपने
मैं रो भी नहीं सकती हूँ तुम्हारे लिए
रोने से मेरी नाक लाल हो जाती है
दुनिया को खबर हो जाती है
लोग मोहल्लेदारी में फिर कहते फिरेंगे
40/11 की लड़की प्रेम में है आजकल
मैं तुम्हें खत भी नहीं लिख सकती
मेरी छत पर कबूतर नहीं आता
वहाँ बुलबुल का सख्त पहरा रहता है
वे कोई और लोग हैं जो बन गए हैं
सोहनी लैला हीर शीरीं
मेरे पास तो काम की लंबी फेहरिस्त पड़ी रहती है
कपड़े धोना बर्तन माँजना सब मेरे जिम्मे है
मेरे पास प्यार के लिए वक्त नहीं है
तुम्हें याद करने से मेरे काम बिगड़ जाते हैं
बुनाई करते हुए फंदे गिर जाते हैं
कढ़ाई करते हुए सुई चुभ जाती है मेरी उंगलियों में
उभर आते हैं वहाँ खून के कतरे
और तुम्हारा नाम मेरे होठों से बेसाख्ता निकल जाता है
किसी दिन जो सुन लेंगे अम्मा बाबू भईया तुम्हारा नाम
मेरी जान निकाल कर रख देंगे
और हाँ सुनो !
मैं एक-दूजे के लिए पिक्चर वाली सपना भी नहीं हूँ
कि छलांग लगा दूँ अपने वासु के साथ
मैं मर जाऊँगी पर मरते हुए भी तुम्हें ज़िन्दा देखना चाहूंगी
एक बात और मुझे अनारकली न कहा करो
मुझे दीवारों में चिन जाने से डर लगता है
दम घुटने के ख्याल से ही घबराहट होने लगती है
मुझे इतिहास की कहानी नहीं बनना है
मुझे तो जीना है
कविताएँ लिखते रहना है तुम्हें देखते हुए
बरगद की छाँव में बैठ कर