सैय्याद का यह फरमान है कि
बुलबुलों का चहकना
मौसम के अनुकूल नहीं है
हब्बा खातून और लल्लेश्वरी की सरजमीं पर
अब नहीं गूंजेंगीं
कभी कोयलों की मीठी तानें,
कुछ नहीं बदलेगा,
पृथ्वी यूँ ही सूर्य के चक्कर लगाएगी,
यूँ ही देसी पासपोर्ट पर सफ़र करते
तथाकथित देशवासी सरहद पार से
फतवों की झोलियाँ भरकर लायेंगे,
यूँ ही सेंकी जाएँगी
संगीत की चिता पर
सियासत की रोटियां,
यूँ ही सालों से दर-बदर लोग
इस साल भी उम्मीद का दरवाज़ा खटखटायेंगे,
बहारें हर बरस आएँगी
वादियाँ हर बरस गुलज़ार होंगी
बस तीन कमसिन फूल
अब फूलों की घाटी में
फिर कभी नहीं मुस्कुराएंगे...