भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बंद / दिनकर कुमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

छत्तीस घण्टे तक लुप्त रही चेतना
तेज़ बुख़ार से तपता रहा शरीर
अवचेतन दिमाग में घूमते रहे
भूखे बच्चे, कुली, मज़दूर-किसान
सड़क किनारे बैठे भिखारी
तकिए की जगह दस्तख़त किया हुआ
एक बयान
जिस पर चमकते रहे ख़ून के छींटे
दिमाग में घूमती रही तस्वीर
क्षत-विक्षत पाँच शव और
तिरंगा झंडा
ख़ाकी वर्दी और आधुनिक हथियार
एक ख़ामोशी में लिपटा रहा शरीर
सहमने का, डरने का, चुप होने का
यह मौसम नहीं था
अभी-अभी तो आया था वसन्त
धोए थे ब्रह्मपुत्र के जल में पैर
अभी-अभी तो उसने हृदय को छुआ था
वह भी लपटों से झुलस ही गया होगा
वह नहीं जानता भूगोल
राजनीति, अर्थशास्त्र और कूटनीति
इस चेतना का क्या करें
जो एक टीस की तरह है
इतना सारा दर्द लेकर
नहीं मुस्करा सकते हैं
बुरा मानेगा वसन्त, माने
बुख़ार चला गया
छोड़ गया है चिड़चिड़ापन
कष्ट सहने की शक्ति बढ़ गई है ।