भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बंधू रे / रामनरेश पाठक
Kavita Kosh से
बंधु रे!
नाग सोख गया
धरती का रस,
बीज, मिहनत, कमाई
मेरी छाती दरक गयी
बंधु रे!
संज्ञा बदल गयी
विशेषण बदल गए
कर्म और अधिकरण, बदल गए
मेरी बाजी पलट गयी
बंधु रे!
जहर अब भी घोला जा रहा है
भविष्य के शिशु को एक हाथ
अब भी दबोचे जा रहा है
बंधु रे!
बंधु रे!!
बंधु रे!!!