भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बकरियाँ / आलोक धन्वा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अगर अनंत में झाडियाँ होतीं तो बकरियाँ
अनंत में भी हो आतीं
भर पेट पत्तियाँ तूंग कर वहाँ से
फिर धरती के किसी परिचित बरामदे में
लौट आतीं

जब मैं पहली बार पहाड़ों में गया
पहाड़ की तीखी चढाई पर भी बकरियों से मुलाक़ात हुई
वे काफ़ी नीचे के गाँवों से चढ़ती हुई ऊपर आ जाती थीं
जैसे जैसे हरियाली नीचे से उजड़ती जाती
गर्मियों में

लेकिन चरवाहे कहीँ नहीं दिखे
सो रहे होंगे
किसी पीपल की छाया में
यह सुख उन्हें ही नसीब है।