बगदाद / श्रीनिवास श्रीकांत
ख़लीफ़ाई ख़िलाफ़त का
एक अज़ीम स्मृतिचिन्ह था बगदाद
एक पुराना नामचीन शहर
जहां एकाकार हुआ था कभी
पूरी दुनिया का परात्मज्ञान
लोग थे भटके-भटके
अपनी असमापनीय
मरूयात्राओं से थके-हारे
अपनी इच्छाओं
अपनी जातिदाह के मारे
न जाने कहां-कहां से हुए थे एकत्र
और बन गया था
हालातों का सिधाया एक धर्मसंघ
चिरस्मरणीय उस नबी की छाया में
और तब उसने किया था
अपनी तरफ से
एक आख़िरी मज़हब का एलान
जिसके लिये लामबन्द हुए
आतुर आमजन
प्रताड़ित दिग्विमूढ़
इतिहास के मारे
नये इब्राहीम
नये इसाक
और नये जैकब
जिनके पूर्वज सब
मद्दाह थे अल्लाहताला के
और टोकरियों में अंगूठा चूसते
मूसा,ईसा
और उनके उपराम क़बीले भी
अपने ऊंटों,भेड़ों,लद्दू चौपायों के साथ
जो चरमराती गाड़ियों में
लादे अपनी गृहस्थी,अपनी नफरियां
जैसे एक साथ बहता हुआ दरिया
भाग रहा हो जो
अपने अब-तक अनजाने
नाभिकेन्द्र समुद्र की ओर
सरमन नहीं थे वे
अगले मसीहाओं के
पर्वतीय प्रवचनों की तरह
जिनको सुनने जमा हुई थी
ख़ानाबदोशों और उनके मुखियाओं की
अपार भीड़
वह था एक अन्तिम धर्मग्रन्थ का
मुकद्दस उदघाटन
जो था मौखिक
न थी जिसकी कोई लिपि
न जिल्द
और न शब्द में बन्धे कोई पृष्ठ
वह थी एक आसमानी आवाज़
जो सुनी थी नबीने
अपनी तुरीय समाधि में
ओर कहा थाः
यह है ब्रह्माण्ड का
अन्तिम सत्य
अनेक आयामों वाला
नायाब
जिसमें है नुमाया
इन्सान की ईश्वरीय पहचान
एक इलाही दरख्त जिसे
सभी रूहों में जिन्दा रखने के लिए
जाने अभी करना होगा क्या-क्या
पैगम्बर चाहता था
समूची पृथ्वी पर सबके लिये
एक बन्धुत्व
आदमी की
सर्वदेशीय पहचान
मगर अफसोस
कि आज सदियों बाद भी
न हुआ वह
पीढ़ी-दर-पीढ़ी/
स्खलित होता रहा
आदमी का सत्व
ज़िन्दगी का
ज़हरीला मद पी-पीकर
वह हो गया हिंस्र
उसके खून में ही था शायद
कहीं कुछ खोट
जिसने उड़ा दीं
अपनी ही दुनिया की धज्जियां
नहीं जाना उसने कि
वह बैठा है जिस टहनी पर
काट रहा है उसे ही वह
और उधर शैतान के उड़न सर्प
क़ाबिज हो गये थे उस पर
उन्होंने बना ली है थी भूमिगत
अपनी एक दुनिया
बम और बन्दूकों से भरी
और फ़तवा यह कि वे करेंगे
दुनिया की आदलत में
अपने ईमान का दावा
न हुई सुनवाई
तो करेंगे प्रतिवाद
अपने अस्त्रों के साथ
एक बार फिर गाड़ देंगे
अपने-अपने सामरिक खूंटे
मानव संकुल बस्तियों में
लिख देंगे फिर अपने
कूट अहम की भाषा
समय की तख़्तियों पर
और टांग देंगे,हर द्वार, हर टहनी पर
अपने फरमान
नरसंहार की अग्रिम धमकियां।
पैगम्बर था स्वयं एक इन्सान
दिव्यज्योति का वाहक
एक सच्चा मुसलमान
आदमी और ईश्वर के बीच एकसूत्र
हरकारा एक दैवी गुण युक्त
शहादतमन्द जीवनार्पी
और न जाने क्या-क्या
नातिया तो गाते रहे
पीढ़ी-दर-पीढ़ी
उसके सब धर्मजन
हदीसी भी थे वे मगर
उनमें से कुछ
सामूहिक अहंकार के पिंजरे में
बाज़ की तरह छटपटाते
बन गये दहशतमन्द
गले फलों में जैसे गन्दे बीज
बदरूप फूलों में ज़हरीले पराग।