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बगरो / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
बगरो खाय छैं खुद्दी तोंय
कहाँ सें पैबैं बुद्धी तोंय
फुदकी, कबदी, कुढ़लोॅ जो
आकि उड़ले-उड़लोॅ जो
बौंसी जाय गुड़झिलिया टान
जे मूरी-घुँघनी के खान
भले ही थक्की जैबै तोंय
कोठी बनी केॅ ऐबै तोंय।