बग़ैर पूछे जो अपनी सफ़ाई देता है / सुरेश चन्द्र शौक़
बग़ैर पूछे जो अपनी सफ़ाई देता है
नहीं भी हो तो भी मुजरिम दिखाई देता है
जो इक़्तिदार की कुर्सी पे जलवा फ़रमा हैं
न जाने क्यों उन्हें ऊँचा सुनाई देता है
तिरे ज़मीर का आइना गर सलामत है
तो देख उसमें तुझे क्या दिखाई देता है
मिरा नसीब कि ग़म तो अता हुआ, वरना
किसी को तिरा दस्ते-हिनाई देता है
वो तकता रहता है हर वक़्त आसमाँ की तरफ़
खला में जाने उसे क्या दिखाई देता है
करोड़ों लोग हैं दुनिया में यूँ तो कहने को
कहीं –कहीं कोई कोई इन्साँ दिखाई देता है
बहुत ज़ियादा जहाँ रौशनी ख़िरद की हो
निगाहे-दिल को वहाँ कम सुझाई देता है
तज़ाद ज़ाहिरो—बातिन में उसके कुछ भी नहीं
है 'शौक़' वैसा ही जैसा दिखाई देता है
इक्त्दार=सत्ता;अता=प्रदान;दस्त—ए—हिनाई=मेंहदी रचा हाथ ;खला=शून्य;खिरद=बुद्धि;तजाद=प्रतिकूलता; ज़ाहिरो—बातिन=प्रत्यक्ष रूप तथा अंत:करण