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बगुले / विष्णुचन्द्र शर्मा

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बगुलों ने
न धान के खेत रोपे हैं
न हरे खेतों की निराई की है!
बस वे
गाढ़े रंगों की साड़ी पहने
खेतों की औरतों का हाथ बटा रहे हैं।
और औरतें
गा रही हैं खुले कंठ से गान!