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बगुलों की पातें/ शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान
Kavita Kosh से
मुँह के ऊपर लल्लो-चप्पो
पेट पली घातें,
किए ताल पर कब्ज़ा बैठीं
बगुलों की पातें ।
कैसे उछरै सोन मछरिया
सबकी नज़र गड़ी,
कहने भर को राम-नाम की
माला गले पड़ी,
तन के छोटे-छोटे हैं पर
बड़ी बड़ी आंतें ।
एक यही बस ध्यान स्वार्थ का
कैसे फूल खिले,
जान भले औरों की जाए
ख़ुद को स्वाद मिले,
श्वेत वस्त्रधारी तन चिकने
ज़हर बुझी बातें ।
देख-देख कर सहमा सिकुड़ा
ताल हुआ छोटा,
प्यास बढ़ी पर दिखे दिनोदिन
पानी का टोटा,
एक आस विश्वास कि होंगी
फिर से बरसातें ।
किए ताल पर कब्ज़ा बैठीं
बगुलों की पातें ।