बचपन-2 / मुनव्वर राना
मेरा बचपन था मेरा घर था खिलौने थे मेरे
सर पे माँ-बाप का साया भी ग़ज़ल जैसा था
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हो चाहे जिस इलाक़े की ज़बाँ बच्चे समझते हैं
सगी है या सौतेली है ये माँ बच्चे समझते हैं
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ये बच्ची चाहती और कुछ दिन माँ को ख़ुश रखना
ये कपड़ों के मदद से अपनी लम्बाई छ्पाती है
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ये सोच के माँ -बाप की ख़िदमत<ref>सेवा</ref>में लगा हूँ
इस पेड़ का साया मेरे बच्चों को मिलेगा
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हँसते हुए माँ-बाप की गाली नहीं खाते
बच्चे हैं तो क्यों शौक़ से मिट्टी नहीं खाते
बच्चे भी ग़रीबी को समझने लगे शायद
अब जाग भी जाते हैं तो सहरी <ref>वह भोजन जो रोज़ा करने सेपहले बहुत तड़के किया जाता है</ref>नहीं खाते
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