बचपन - 18 / हरबिन्दर सिंह गिल
न जाने स्कूल के प्रांगण में
क्या कशिश थी
अभी भी जब बचपन को
बाइस साल पीछे छोड़ आया हूँ
ऐसा लगता है
आने वाले हर कल का उदय
उसके क्षितिज से हो रहा है।
और आने वाली हर शाम
अपने डूबते सूरज की
किरणों के साथ
छोड़ जाती है, एक बारात
सहपाठियों के यादों की।
आज महसूस हो रहा है
इसी प्रांगण में
गुरुओं का दिया आर्शीवाद
जीवन के मंच पर
कैसे सार्थक होता चला जा रहा है।
आज महसूस हो रहा है
क्यों मानव सभ्यता
इसी प्रांगण में आकर
विकसित होती है।
आज यह महसूस हो रहा है
क्यों मानवता का धन
इसी प्रांगण में बने फलता फूलता है।
आज महसूस हो रहा है
क्यों मानवता रूपी मंदिर
स्कूल के प्रार्थना मैदान में
पूजा जाता है।
आज महसूस हो रहा है
क्यों मानवता का चरित्र
इसी प्रांगण में बने
खेल मैदानों में निखरता है।