भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बचपन - 29 / हरबिन्दर सिंह गिल
Kavita Kosh से
बचपन कितना भोला होता है
जब सोचता हूँ आज
मानव बनने के बाद
कितना बदला लगता है सब।
वो दिन
जब कोई आभास नहीं था
कि धर्मों में भी अंतर हो सकता है।
अनायास ही कदम उठते चले जाते थे।
अपने सहपाठियों के साथ बांई दिशा में
जहाँ था मंदिर, बजरंग बली का।
जाते थे झुकाने शीश और पाने आर्शीवाद
अच्छे अंकों से पास हो जाएँ।
काश होता बच्चे में मानव का ज्ञान
कहता और मजबूर करता
तेरे भगवान का घर बाई ओर नहीं
दाहिने तरफ जा।
वहाँ है वास करता, भगवान अपना।
ये एक साल का घटनाक्रम नहीं था
जिसे मैं दे रहा हूँ पंक्तियाँ
पूरे ग्यारह साल तक
दोहराता रहा था यह परिक्रमा।